Department Highlights: New Year 2026 : DMS Jamalpur : PSS Office Bearers

Navacetana’ – Voice of Girls Proutist

is celebrating New year 2026 with Scientists, Agriculturists and Journalists of India and Overseas.

Happy New Year 2020 Greeting Card Ideas For Kids

 

The Children are requested to make Greeting cards for the above mentioned genius of our society. A detailed list and profile all the above will soon be published on this website.

 

Query for Greeting cards : Mrs Meetu Singh 91-9205730911

Query for Scientists/ Agriculturists/ Journalists : Mrs Vineeta Anand 9390300536


DMS Jamalpur October 2025

बाबा नगर, जमालपुर, २४ अक्टूबर:

प्रकृति की सुरम्य गोद में स्थित आध्यात्मिक केंद्र “आनंद सम्भूति” मास्टर यूनिट, अमझर के कोलकाली मैदान में आयोजित भव्य धर्म महासम्मेलन के प्रथम दिवस का शुभारंभ आध्यात्मिक ऊर्जा और उत्साह से परिपूर्ण रहा।

प्रातःकालीन सत्र की शुरुआत साधकों द्वारा गुरु सकाश, पांचजन्य एवं सामूहिक साधना से हुई, जिससे संपूर्ण वातावरण आध्यात्मिक चेतना से गुंजायमान हो उठा। पुरोधा प्रमुख जी के आगमन पर आनंद मार्ग सेवा दल के समर्पित स्वयंसेवकों ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान कर गरिमामय स्वागत किया।

इसके पश्चात हरि परिमंडल गोष्ठी (महिला विभाग) के अंतर्गत आचार्या अवधूतिका आनंद आराधना के नेतृत्व में १६ साधिका बहनों ने कौशिकी नृत्य की भावपूर्ण प्रस्तुति दी, जिसने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। वहीं हरि परिमंडल गोष्ठी (सेवा धर्म मिशन) के तहत आचार्य सुष्मितानंद अवधूत के निर्देशन में १३ बाल साधकों ने जोश और ऊर्जा से परिपूर्ण तांडव नृत्य प्रस्तुत किया, जिसने पूरे माहौल को ओजस्विता और आध्यात्मिक उत्साह से भर दिया।

इसके बाद प्रभात संगीत संख्यांक ८०२ और ८०३ का भावनात्मक अनुवाद तीन भाषाओं में प्रस्तुत किया गया —

हिंदी में: वरिष्ठ मार्गी श्री प्रद्युम्न नारायण जी

अंग्रेज़ी में: आचार्य विमलानंद अवधूत

बंगला में: आचार्य रागमयानंद अवधूत

इसके पश्चात आचार्य जगदात्मानंद अवधूत ने अपने मधुर कंठ से शिव-गीति का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया, जिससे संपूर्ण वातावरण भक्ति और आध्यात्मिक आनंद में डूब गया।

कीर्तन: भक्तों की पुकार

इस शुभ अवसर पर आनंद मार्ग प्रचारक संघ के पुरोधा प्रमुख, श्रद्धेय आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत जी ने “कीर्तन से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले तीन प्रश्न” —

1. अखंड कीर्तन के समय वामावर्त परिक्रमा क्यों करते हैं?

2. आवर्त कीर्तन के समय दक्षिणावर्त क्यों घूमते हैं?

3. ‘बाबा नाम केवलम्’ अष्टाक्षरी कैसे है?

का तर्कसंगत और सारगर्भित उत्तर अपने प्रवचन में दिया।

उन्होंने कहा कि जैसा कि हम सभी जानते हैं, प्रकृति के त्रैरज्जु जीव को बाँध देते हैं। तीनों गुण — सत्त्व, रज और तम — सूक्ष्म से स्थूल की ओर रूपांतरित होते रहते हैं। यह जो बंधन गति दक्षिणावर्त है, वही प्रकृति की गति है। कुलकुंडलिनी भी मूलाधार में साढ़े तीन फेरे दक्षिणावर्त ही बँधी हुई है। प्रकृति की इस बंधनागति को खोलने के लिए वामावर्त दिशा में ही कीर्तन करना पड़ता है।

उन्होंने आगे कहा कि संचर धारा में गति सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है, जबकि प्रतिसंचर धारा में स्थूल से सूक्ष्म की ओर। बंधन गति को खोलने के लिए घर से पूर्व, पूर्व से दक्षिण, दक्षिण से पश्चिम और पश्चिम से उत्तर की ओर परिक्रमा करनी होती है। यही कारण है कि अखंड कीर्तन में वामावर्त दिशा में कीर्तन किया जाता है।

दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि आवर्त कीर्तन में गति दक्षिणावर्त होती है। इसका कारण यह है कि ५० मूल वृत्तियाँ हैं जो दसों दिशाओं में सक्रिय रहती हैं। दस दिशाएँ इस प्रकार हैं —

1. पूर्व (East)

2. पश्चिम (West)

3. उत्तर (North)

4. दक्षिण (South)

5. ईशान (उत्तर-पूर्व)

6. अग्नि (दक्षिण-पूर्व)

7. नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम)

8. वायु (उत्तर-पश्चिम)

9. ऊर्ध्व (ऊपर की दिशा)

10. अधो (नीचे की दिशा)

५० वृत्तियाँ × १० दिशाएँ × २ (बाह्य और आंतरिक) = १०००, जिसका नियंत्रक बिंदु सहस्रार चक्र है।
आवर्त कीर्तन में मन को सहस्रार चक्र में स्थिर रखकर दक्षिणावर्त गति में कीर्तन किया जाता है, जिससे दिशाओं पर नियंत्रण प्राप्त होता है और ५० वृत्तियाँ सहस्रार की ओर अग्रसर होती हैं।

तीसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि —
‘बाबा नाम केवलम्’ के संदर्भ में संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से ‘म्’ में हलन्त लगने से यह आठ अक्षर नहीं रह जाता है। किंतु चूँकि कीर्तन छंदप्रधान होता है और राग-रागिनियों में गाया जाता है, इसलिए वहाँ व्याकरण गौण हो जाता है, और यह अष्टाक्षरी महामंत्र के रूप में ही स्वीकार्य है।

आपका हितैषी,
आचार्य कल्याणमित्रानंद अवधूत
केन्द्रीय जनसम्पर्क सचिव
आनंद मार्ग प्रचारक संघ

संध्याकालीन कार्यक्रम

प्रकृति की सुरम्य गोद में स्थित आध्यात्मिक केंद्र “आनंद सम्भूति” मास्टर यूनिट, अमझर के कोलकाली मैदान में आयोजित भव्य धर्म महासम्मेलन के प्रथम दिवस का संध्याकालीन कार्यक्रम आध्यात्मिक ऊर्जा और उत्साह से परिपूर्ण रहा।

संध्याकालीन सत्र की शुरुआत साधकों द्वारा सामूहिक साधना से हुई, जिससे संपूर्ण वातावरण आध्यात्मिक चेतना से गुंजायमान हो उठा। “रावा” (रिनेसां आर्टिस्ट्स एंड राइटर्स एसोसिएशन) के बैनर तले प्रभात संगीत आधारित नृत्य-गीत और सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। तदोपरांत पुरोधा प्रमुख जी के आगमन पर आनंद मार्ग सेवा दल के समर्पित स्वयंसेवकों ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान कर गरिमामय स्वागत किया।

कौशिकी और तांडव की मनमोहक प्रस्तुतियाँ

इसके पश्चात हरि परिमंडल गोष्ठी (महिला विभाग) के अंतर्गत आचार्या अवधूतिका आनंद आराधना के नेतृत्व में 16 साधिका-बहनों ने कौशिकी नृत्य की भावपूर्ण प्रस्तुति दी, जिसने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। वहीं, हरि परिमंडल गोष्ठी (सेवा धर्म मिशन) के तहत आचार्य सुष्मितानंद अवधूत के निर्देशन में 14 बाल-साधकों ने जोश और ऊर्जा से परिपूर्ण तांडव नृत्य प्रस्तुत किया, जिसने पूरे माहौल को ओजस्विता और आध्यात्मिक उत्साह से भर दिया।

इसके बाद प्रभात संगीत संख्यांक 804 और 805 का भावनात्मक अनुवाद तीन भाषाओं में प्रस्तुत किया गया—
हिंदी में: वरिष्ठ मार्गी श्री प्रद्युम्न नारायण जी
अंग्रेजी में: आचार्य विमलानंद अवधूत
बंगला में: आचार्य रागमयानंद अवधूत

इसके पश्चात आचार्य जगदात्मानंद अवधूत ने अपनी मधुर कंठ से प्रभात संगीत का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया, जिससे संपूर्ण वातावरण भक्ति और आध्यात्मिक आनंद में डूब गया।

वीतराग और कीर्तन पर श्रद्धेय पुरोधा प्रमुख जी का प्रेरणादायक प्रवचन

तदोपरांत साधकों को संबोधित करते हुए श्रद्धेय प्रमुख आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत ने “वीतराग और कीर्तन” विषय पर प्रवचन देते हुए कहा कि अनासक्त भाव से कर्मरत रहना वीतराग कहलाता है। वीतराग जीवन-दर्शन का वह उत्कृष्ट भाव है, जिसे अपनाकर सन्यासी और गृहस्थ कीचड़ में खिले हुए कमल के समान जीवन को सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं। सभी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समान भाव बनाए रखना वीतरागियों की पहचान है।

ना कोई राग, ना कोई द्वेष, न कोई अपना, न कोई पराया। न हर्ष का अतिरेक, न विषाद का दुख — वीतरागी हर परिस्थिति में स्थितप्रज्ञ रहता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, सम्मान-अपमान, हार-जीत और सफलता-असफलता को परिवर्तनशील मानकर मानसिक संतुलन बनाए रखता है। वीतरागी साधक यह समझ लेता है कि माया परम पुरुष की प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधक है, इसलिए वह समभाव में रहता है। उसके लिए न काहू से दोस्ती, न काहू से वैर; सब में शामिल रहकर भी सबसे दूर रहता है।

एक वीतरागी कभी भी अशांत, उद्विग्न या हताश नहीं होता है। वीतरागी विकारों से दूर रहकर शांत रहते हुए अपने संपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करता है। भक्तगण जब सम्मिलित भाव से, केंद्रित और एकाग्रचित्त मन से कीर्तन करते हैं, तो परम पुरुष के प्रति अनुराग पैदा होता है। जब वे आनंद में सराबोर होकर नाचते, गाते, रोते हैं, तब परम पुरुष अपने दिए हुए वचन “मद्भक्ता यत्र गायन्ते तत्र तिष्ठामि” को साकार कर देते हैं — वे स्वयं प्रकट हो जाते हैं।

यह जो परम पुरुष के प्रति अनुराग, अनन्य प्रेम और आनंद है — यही सही वीतराग है। इसलिए साधक को खूब कीर्तन करना चाहिए। “आनंद सम्भूति” प्रकृति की गोद में बसा हुआ है; चारों तरफ हरियाली है। यहां कीर्तन करने से जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पति तथा विशेष ग्राम में रह रहे लोग कीर्तन सुनते हैं, तो उनका भी कल्याण होता है। कीर्तन पॉज़िटिव माइक्रोवाइटा का श्रेष्ठतम साधन है।

 


दिनांक 25 10.2025 के प्रातः काल के प्रवचन का अंश

आज का विषय है -भक्ति के अवस्था भेद ।
भक्ति कई रूपों में अभिव्यक्त होती है उनमें से एक रूप है श्रद्धा । इसका मूल है प्रेम और प्रेम क्या है ? अखण्ड सत्ता परम पुरुष के प्रति आकर्षण ही प्रेम है । प्रेम का विलोम है काम अर्थात खंड सत्ता के प्रति आकर्षण । श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्धजन भी अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते है । सिद्ध जन माने जो आध्यात्मिक साधना में उच्च स्तर को प्राप्त कर चुके हैं । आध्यात्मिक विकाश करने के लिए श्रद्धालु होना होगा ।

श्रद्धा और विश्वास एक दूसरे के पूरक है।श्रद्धा से विश्वास और विश्वास से श्रद्धा विकशित होती है ।श्रद्धा के बिना आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है । इसके मूल में है प्रेम । अतः श्रद्धा भक्ति का एक रुप हैं।

भक्ति का एक अन्य रूप है प्रीति । मनुष्य इंद्रिय विषयों में कितना सुख पाता है, इसे पाने के लिए वह कहां-कहां नहीं भटकता है । बड़े-बड़े जोखिम उठाने के लिए तैयार रहता है । लेकिन भक्त को क्या चाहिए ? वह प्रभु के प्रति तीव्र प्रेम रखता है । यदि तीव्र प्रेम नहीं होगी तो वह बह जाएगा इंद्रिय रस की ओर ।

भक्ति का एक और अन्य रूप है विरह । विरह क्या है -प्रेमास्पद के अभाव में तीव्र वेदना ही विरह है । इस हेतु तीन तत्व होते हैं प्रेमी, प्रेम और प्रेमास्पद । प्रेमी प्रेम करने वाला को कहते हैं । प्रेमास्पद, प्रेमी जिससे प्रेम करता है और प्रेम है इन दोनों को जोड़ने वाली कड़ी । आस्पद का अर्थ है प्रेम का खजाना । तो प्रेमास्पद कौन हो सकता है । इस सृष्टि में परम पुरुष को छोड़कर और कौन? विरह है भगवान को नहीं पा सकने का दुख । परा भक्ति जब हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है तो परमपुरुष के अतिरिक्त अन्य सभी .वस्तुयें अप्रिय लगती है ।

भक्ति की अंतिम सोपान है राधा भक्ति । जब जीव भाव अन्य विषयों से हट जाता है तब वह कहता है कि परम पुरुष मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं केवल तुम्हें और केवल तुम्हें ही चाहता हूं। उसके मन में भाव है कि परम पुरुष मेरे और केवल मेरे हैं। इस स्थिति में वह स्वयं को भूल जाता है ।

बृहद अरण्यक उपनिषद् में एक दृष्टांत है । ऋषि याज्ञवल्क्य एक बार बीमार पड़ गए। उनकी दो पत्नियां थी मैत्रेयी और कात्यायनी। ऋषि उनकी सेवा से बहुत खुश थे। उसने सबसे पहले कात्यायनी से पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए बताओ तुमने मेरी बहुत सेवा की है, तुम्हारी सभी इच्छाओं की पूर्ति करूंगा। तब कात्यायनी ने एक लंबी सूची बना दी विभिन्न वस्तुओं की जैसे कपड़े गहने आदि की। ऋषि ने उनकी सभी इच्छाओं की पूर्ति कर दी। इसके बाद ऋषि ने अपनी दूसरी पत्नी मैत्रेयी से पूछा तुम्हें क्या चाहिए लेकिन वह चुप रही। पुनः पूछने पर उसने कहा जो वस्तु मुझे अमृत तत्व में प्रतिष्ठित नहीं करेगी उसे लेकर मैं क्या करूंगी? अतः ऐसी वस्तु दीजिए जो सदैव मेरे पास रहे । तब ऋषि के मैत्रेयी को राजयोग सिखाया । आनंद मार्ग की साधना क्या है राजाधिराज योग, जिसे बाबा ने दिया । यही है भक्ति की पराकाष्ठा।


25 अक्टूबर (दोपहर)

राधाभक्ति का चरम भाव: “प्रभु! तुम सिर्फ मेरे हो और मेरे होकर ही रहोगे” । —श्रद्धेय पुरोधा प्रमुख आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत

प्रकृति की सुरम्य गोद में स्थित आध्यात्मिक केंद्र “आनंद सम्भूति मास्टर यूनिट, अमझर” के कोलकाली मैदान में आयोजित भव्य धर्म महासम्मेलन के दूसरे दिवस का कार्यक्रम आध्यात्मिक ऊर्जा और उत्साह से परिपूर्ण रहा। दिन का शुभारंभ पांचजन्य, गुरु सकाश, सामूहिक साधना, आसन, कौशिकी और तांडव अभ्यास से हुआ।

भुक्ति प्रधानों की बैठक का संचालन महासचिव आचार्य अभिरामानंद अवधूत की अध्यक्षता में किया गया।

इसके उपरांत, पुरोधा प्रमुख जी के आगमन पर आनंद मार्ग सेवा दल के समर्पित स्वयंसेवकों ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान कर गरिमामय स्वागत किया।

हरि परिमंडल गोष्ठी (महिला विभाग) के अंतर्गत आचार्या अवधूतिका आनंद आराधना के नेतृत्व में 22 साधिका बहनों ने कौशिकी नृत्य की भावपूर्ण प्रस्तुति दी, जिसने सभी उपस्थित जनों को मंत्रमुग्ध कर दिया। वहीं हरि परिमंडल गोष्ठी (सेवा धर्म मिशन) के तहत आचार्य सुष्मितानंद अवधूत के निर्देशन में 16 बाल साधकों ने जोश और ऊर्जा से परिपूर्ण तांडव नृत्य प्रस्तुत किया, जिसने पूरे वातावरण को ओजस्विता और आध्यात्मिक उत्साह से भर दिया।

इसके बाद प्रभात संगीत संख्या 806 एवं 807 का भावनात्मक अनुवाद तीन भाषाओं में प्रस्तुत किया गया, जिसे सुनकर साधकगण भाव-विभोर हो उठे—
हिंदी में: श्री प्रद्युम्न नारायण जी
अंग्रेज़ी में: आचार्य विमलानंद अवधूत
बंगला में: आचार्य रागमयानंद अवधूत

तदोपरांत आचार्य जगदात्मानंद अवधूत ने अपने मधुर कंठ से “प्रभु ह्म्म अ चलो तोरे आस म” प्रभात संगीत का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया, जिससे संपूर्ण वातावरण भक्ति और आनंद की भावधारा में सराबोर हो गया।

मुख्य प्रवचन में श्रद्धेय प्रमुख आचार्य विश्वदेवानंद अवधूत ने “भक्ति की अवस्थाओं के भेद” विषय पर कहा—
भक्ति अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है। इसका मूल है श्रद्धा, और श्रद्धा का आधार है प्रेम। प्रेम का अर्थ है — अखंड सत्ता के प्रति आकर्षण। इसका विलोम है काम।

उन्होंने रामचरितमानस का सूत्र उद्धृत किया —

> “भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥”

अर्थात् — मैं उन श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी-शंकर को वंदन करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन भी अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते।

आचार्य विश्वदेवानंद जी ने कहा —
यदि हम प्रेम नहीं करते, तो श्रद्धा भी नहीं हो सकती। श्रद्धालु की पहचान है — वह कहता है, “प्रभु! तुम्हारे बिना मेरा कोई नहीं।”

भक्ति की दूसरी अवस्था में भक्त का प्रेम तीव्र हो जाता है। जैसे मनुष्य इंद्रियसुख के लिए अनेक जोखिम उठाता है, वैसे ही सच्चे भक्त को परमपुरुष के प्रति तीव्र प्रेम रखना चाहिए; अन्यथा मन विषय-रस में डूब जाता है।

तीसरी अवस्था है विरह — अर्थात्, परमपुरुष के अभाव में जो पीड़ा उत्पन्न होती है, वही विरह है। भगवान ही प्रेमपद हैं, और साधक प्रेमी है। जब प्रेमी परमप्रेमपद को पा लेता है, तब वह स्वयं भी प्रेममय हो जाता है।

चौथी अवस्था है राधाभक्ति — जब जीव का चित्त सभी विषयों से हटकर केवल परमपुरुष की ओर केन्द्रित हो जाता है। वह कहता है — “हे प्रभु! जगत में मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल तुम्हीं चाहिए।”

आचार्य जी ने बृहदारण्यक उपनिषद् का दृष्टांत देते हुए कहा — जब ऋषि याज्ञवल्क्य बीमार हुए, तब उनकी पत्नियाँ मैत्रेयी और कात्यायनी ने सेवा की। स्वस्थ होने पर उन्होंने दोनों से कहा कि वे अपनी-अपनी इच्छा बताएं। कात्यायनी ने भौतिक वस्तुएँ मांगीं, किंतु मैत्रेयी ने कहा —

> “येनाहं नामृतास्याम्, किमहं तेन कुर्याम्।”
(जिससे मैं अमर न हो जाऊँ, उसका क्या करूँ?)

अर्थात् — संसार की वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं; अतः ऐसी वस्तु चाहिए जिससे अमृततत्त्व की प्राप्ति हो।

आचार्य जी ने निष्कर्ष में कहा —
जब साधक का प्रेम इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि वह कहता है —
“हे परमपुरुष! तुम्हें छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकता। जब तुम्हें पा लिया, तो पाने को और कुछ शेष नहीं रहा।”
ऐसी स्थिति को ही राधा-भाव कहा जाता है।
अतः साधक को प्रति मुहुर्त राधा-भाव में स्थापित होकर साधना करनी चाहिए।


The National Committee of Proutist Sarva Samaja

Following members are selected in the national committee of PSS

1. Chairman – Shri Pradyumn Narayan Singh
2. Vice chairman (East Zone)- A’c Randhir Dev
3. Vice chairman (West Zone)- A’c Shivanand Dani
4. Vice chairman (North Zone)- Shri Rohtas Singh
5. Vice chairman (South Zone)- Shri Saroj Patnayak
6. General Secretary- Shri Kallooram Singh
7. Office Secretary- Shri Japesh Jain
8. Finance Secretary- Shri Manoj Jain
9. Organizing cum Movement Secretary- Praveen Kumar Dev
10. Federation Secretary- Ac Vinit Kumar Dev
11. Legal Secretary-Shri Prabhunath Singh
12. Media Secretary- Smt Meetu Singh
13. Ladies Wing Secretary- Smt Meera Prakash
14. Member- Shri Yugal Kishore
15. Member- Shri Vinod Kumar Tattvika
16. Member- Shri Charudatta Raul
17. Member- Shri Amrit Lal Acharya

Reported by Meetu Singh